बिखरे बाल, मैली कमीज, पुरानी चप्पल,
अजीब सा बैग लिए हुए, माथे पे लम्बा टीका
कड़ी धूप में पका हुआ चेहरा …
बड़ा अटपटा सा इंसान था
ऐसे कॉफ़ी शॉप में बिन बुलाया मेहमान हो जैसे…
फिर अचानक, कुछ तो हुआ
किसी बात पर ठहाके मारके हंस पड़ा वो
इस बार नज़दीक से देखा,उसकी आँखें खिल के हंस रही थीं
ना कुछ छिपा था उनमें, न कोई संदेह
बस, उस लम्हे में डूबा था, सबसे अनजान
मैंने फिर देखा उसकी ओर,
इस बार उसके अटपटेपन में एक सुकून दिखा
एक मुक्त आत्मा, जो बस अपने में हे मग्न थी,
बेपरवाह, मस्त मौला …
शायद हम सब का नज़रिया ही अटपटा हो चला है..