“इस फिल्म की नायिका तुम नहीं हो !”
ज़ोर से आवाज़ आयी
लगा जैसे
कस के चांटा मार दिया हो किसी ने
उस चांटे की गूँज से जागी मैं
गुस्से से भरा एक विस्फोट हुआ
चिथड़े उड़े मेरे अहंकार के
अजीब सा लगा पहले
अंदर झाँक के देखा तो
अपने आप से एक बू सी आयी
जलन की, खौफ की
टटोलती रही अपने आप को,
के शायद कुछ मिल जाये
पर नहीं,
बस खोखलापन ही पाया
चार दीवारें जो अपने आप को
किला समझे राज करती थीं
दीवारों के अंदर कदम रखा तो
एक ढाँचे से मुलाक़ात हुई
जिसके अंदर कभी रूह बस्ती थी
अब बस खाली बर्तनों का ढेर था
दिन भर बजते रहते
एहसास हुआ कड़वे सच का
चुभन हुई, आंसू बहे
पर इन सब से ज़्यादा
महसूस हुई चुप्पी
एक लम्बी चुप्पी
न कुछ बोला न कुछ सुना
बस एक सन्नाटा
शरीर और रूह दोनों सुन्न
और फिर
कई अर्सों बाद,
कहीं से एक ठंडी सांस आयी
तस्सल्ली हुई के अभी ज़िन्दगी बाकी हैं
एक अजीब सा चैन मिला
अब कोई ज़रुरत नहीं
हर समय श्रृंगार की
उस निष्कलंक अवतार को
सँवारे रखने का बोझ
अब उतर गया था
इस फिल्म की नायिका मैं नहीं थी
और हर फिल्म की नायिका बनना
ज़रूरी नहीं है
जैसी हूँ बस उतनी ही हूँ
इस जीवनभर के लिए
यह बहुत है
I wrote this post after a deeply reflective exercise in my mind about personality types who wished to be in the limelight all the time.
She slogged hard and craved for applause in everything they did. She appeared confident, was a go-getter, but secretly believed that she is only as good as the image she presents to the world… She nursed a fear of being exposed as being worthless, incompetent. She lived with the burden of the Mantra – “I am what I do” and hence lived the treacherous life of a Human Doing than a Human Being.
Till that day when she decided to drop the image and show up as herself.
This post is an ode to her triumph, of her breaking that curse!